दिल की तह की कही नहीं जाती, नाज़ुक है असरार बहोत
अक्षर तो है इश्क़ के दो ही, लेकिन है विस्तार बहोत
हिज़्र ने जी ही मारा हमारा, क्या कहिये क्या मुश्किल है
उस से जुदा रहना होता है, जिससे हमें है प्यार बहोत
सौ ग़ैरों में हो आशिक़ तो एक उसी से शर्मावे,
इस मस्ती में आँखे उसकी रहती है हुशियार बहोत
रात से शोहरत इस बस्तीमें 'मीर' के उठजाने की है,
जंगल में जो जल्द बसाजा शायद था बीमार बहोत
दिल की तह की = मन की छुपी हुई बात
असरार = भेद, राज़
हिज़्र = जुदाई
- मीर तक़ी मीर
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