Tuesday, July 23, 2013

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही, मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही. - मिर्ज़ा असदुल्ला खां "ग़ालिब"

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही,
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही.

क़त्ता कीजे न ताअल्लुक़ हमसे,
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही.

मेरे होने में है क्या रुसवाई,
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़लवत ही सही.

हम भी दुश्मन तो नहीं है अपने,
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही.

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो,
आगही गर नहीं, ग़फ़लत ही सही.

उम्र हरचंद के है बर्क़े-ख़िराम,
दिल के ख़ूं करने की फ़ुर्सत ही सही.

हम कोई तर्क़े-वफ़ा करते हैं,
न सही इश्क़, मुसीबत ही सही.

कुछ तो दे ऐ फ़लके-नाइन्साफ़,
आह-ओ-फ़रियाद की रुख़्सत ही सही.

हम भी सललीम की ख़ू डालेंगे,
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही.

यार से छेड़ चली जाए "असद",
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही.

- मिर्ज़ा असदुल्ला खां "ग़ालिब"

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