Tuesday, July 23, 2013

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक. - मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ा "ग़ालिब"

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक.

दामे-हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-निहंग,
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक.

आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करुं ख़ूने-जिगर होने तक.

हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे, लेकिन,
ख़ाक हो जाएंगे हम, तुमको ख़बर होने तक.

परतवे-ख़ूर से है शबनम को फ़ना की तालीम,
मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक.

इक नज़र बेश नहीं फ़र्सते हस्ती ग़ालिब,
गर्मि-ए-बज़्म है इक रक़्से-शरर होने तक.

ग़मे-हस्ती का "असद" किससे हो जुज़ मर्ग, इलाज,
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक.

- मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ा "ग़ालिब"

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