Tuesday, July 23, 2013

कभी साया है कभी धुप मुंक़द्दर मेरा, होता रहेता है युहीं कर्ज़ बराबर मेरा. - कैफ़ भोपाली

कभी साया है कभी धुप मुंक़द्दर मेरा,
होता रहेता है युहीं कर्ज़ बराबर मेरा.

टुट जाते है कभी मेरे किनारे मुझमे,
डुब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा.

कितने हस्ते हुए मौसम अभी आते लेकीन,
एक ही धूपने कुम्लाह दिया मंज़र मेरा.

बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी ना थे.
बैवफ़ा हुंतो हुआ नाम घर घर मेर.

किसी सहेरा में बिंछड जायेंगे सब यार मेरे,
किसी जंगल में भटक जायेंगा लश्कर मेरा.

आखरी ज़र्रा-ए-पूर "कैफ़" हो शायद बाकी,
अब जो छलकेगा तो छलक जायेंगा सागर मेरा.

- कैफ़ भोपाली

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