Tuesday, July 23, 2013

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती. - मिर्ज़ा ग़ालिब

कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती.

मौत का एक दिन मुअइयन है,
नींद क्यूं रात भर नहीं आती.

आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी,
अब किसी बात पर नहीं आती.

जानता हूं सवाबे-ताअत-ओ-ज़ोहद,
पर तबीअत इधर नहीं आती.

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं,
वर्ना क्या बात कर नहीं आती.

क्यूं न चीखूं कि याद करते हैं,
मेरी आवाज़ गर नहीं आती.

दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता,
बू भी ऐ चारागर नहीं आती.

हम वहां हैं जहां से हमको भी,
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती.

मरते हैं आरज़ू में मरने की,
मौत आती है, पर नहीं आती.

काबे किस मुहं से जाओगे "ग़ालिब",
शर्म तुमको मगर नहीं आती.

- मिर्ज़ा ग़ालिब

बर = पूर्ण
मुअइयन = निश्चित
सवाबे = पुण्य
ज़ोहद = वंदनीय संयम
चारागर = उपचारक
काबे = मुस्लिम धर्मस्थल

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