खुमार-ए-ग़म है, महेंकती फ़िज़ा मैं जीते है,
तेरे खयाल की आब-ओ-हवा मैं जीते है.
बडे इतफ़ाक से मिलते है मिलने वाले मुझे,
वोह मेरे दोस्त है, तेरी वफ़ा मैं जीते है.
फ़िराक़-ए-यार मैं सांसो को रोक के रखते है,
हर एक लम्हां गुज़रती क़ज़ा मैं जीते है.
न बात पूरी हुई थी, के रात टूट गई,
अधुरे ख़्वाब की आधी सज़ा मैं जीते है.
तुम्हारी बांतो मैं कोइ मसिहा बसता है,
हसीं लबो से बरसती शफ़ा मैं जीते है.
यु ज़िंदगी गुज़रती है सिर्फ़ तेरे नाम से,
लगता है ऐसा तेरी बाहों के पनाह मैं जीते है.
- समपुर्न सिंघ " गुलज़ार "
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