Monday, June 10, 2013

दोस्त, ग़मख़्वारी में मेरी, सई फ़रमाएंगे क्या, ज़ख़्म के भरने तलक, नाख़ून न बढ़ न जाएंगे क्या. - मिर्ज़ा ग़ालिब

दोस्त, ग़मख़्वारी में मेरी, सई फ़रमाएंगे क्या,
ज़ख़्म के भरने तलक, नाख़ून न बढ़ न जाएंगे क्या.

बेनियाज़ी हद से गुज़री, बंदा परवर, कब तलक,
हम कहेंगे हाले दिल और आप फ़रमाएंगे क्या.

हज़रते-नासेह गर आवें, दीद-ओ-दिल फ़र्शेराह,
कोई मुझको ये तो समझा दो कि समझाएंगे क्या.

आज वां तेग़-ओ-क़फ़न बांधे हुए जाता हूं मैं,
उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लाएंगे क्या.

गर किया नासेह ने हमको क़ैद, अच्छा, यूं सही,
ये जुनुने इश्क़ के अंदाज़ छुट जाएंगे क्या.

ख़ाना ज़ादे-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंज़ीर से भागेंगे क्यूं,
हैं दिरिफ़्तारे-वफ़ा, ज़िदां से धबराएंगे क्या.

है अब इस मामूरे में क़हते-ग़म-उल्फ़त 'असद',
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खाएंगे क्या.

- मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़मख़्वारी = सहानुभूति
सई = सहायता
बेनियाज़ी = उपेक्षा
हज़रते-नासेह = धर्म उपदेशक महोदय
फ़र्शेराह = स्वागत स्थल
वां तेग़-ओ-क़फ़न = चाकू और क़फ़न
उज़्र = बहाना
ख़ाना ज़ादे-ज़ुल्फ़ = केश राशि का बंदी
ज़िंदा = क़ैद
मामूरे = बस्ती, आबादी
क़हते-ग़मे-उल्फ़त = प्रणय-दुख, का अकाल

HiteshGhazal

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