Saturday, December 12, 2015

कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है, - मिर्ज़ा ग़ालिब

कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है,
अपने जी में हमने ठानी और है.

आतिशे-दोज़ख़ में ये गर्मी कहां,
सोज़े-ग़म हाए-निहानि और है.

बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें,
पर कुछ अब के सरगिरानी और है,

दे के ख़त मुंह देखता है नामाबर,
कुछ तो पैग़ामे-ज़बानी और है.

क़ातेअ-ए-आमार हैं, अकसर नुजूम,
वो बला-ए-आसमानी और है.

हो चुकीं ' ग़ालिब ' बालाऐं सब तमाम,
एक मार्गे-नागहानी और है.

- मिर्ज़ा ग़ालिब

आतिशे-दोज़ख़ = नरक की आग
हाए-निहानी = गुप्त पीड़ा की जलन
सरगिरानी = नाख़ुशी
क़ातेअ-ए-आमार = आयु निवारक
नुजूम = ज्योतिष
मार्गे-नागहानी = अचानक मृतयु

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