Friday, December 4, 2015

इशरते-क़तरा हैं दरिया में फ़ना हो जाना - मिर्ज़ा ग़ालिब

इशरते-क़तरा हैं दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना, हैं दवा हो जाना.

अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम, अल्ला-अल्ला,
इक क़दर दुश्मने-अरबाबे-वफ़ा हो जाना.

ज़ओफ़ से गिरिया मुबद्दल ब-दमे सर्द हुआ,
बावर आया, हमें, पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तेरी अंगुश्ते-हिनाई का ख़्याल,
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना.

है मुझे, अब्रे-बहारी का बरस कर खुलना,
रोते-रोते ग़म-फ़ुर्कत में फ़ना हो जाना.

गर नहीं निकहते-गुल को तेरे कूचे की हवस,
क्यूं हैं गर्दे रहे-जौलाने-सबा हो जाना.

बख़्शे है जल्वा-ए-गुल ज़ौक़े-तमाशा ' ग़ालिब ',
चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना.

- मिर्ज़ा ग़ालिब

इशरते-क़तरा = बूंद का सुख
फ़ना =ख़त्म
दुश्मने-अरबाबे-वफ़ा = शत्रु का निर्वाह
ज़ओफ़ = कमज़ोरी
ब-दमे सर्द = सर्द आहों का बदला
बावर = विश्वसनीय
अंगुश्ते-हिनाई = मेहंदी से युक्त उंगलियां
अब्रे-बहारी = बसंत की बदलियां
निकहते-गुल = फूलो की सुगंध
रहे-जौलाने-सबा = तेज़ हवाएं
वा = खुला हुआ

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