Saturday, December 28, 2013

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो, वही यानी वादा निभा का तुम्हें याद हो के न याद हो... - मोमिन खान मोमिन

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो,
वही यानी वादा निभा का तुम्हें याद हो के न याद हो...

वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें,
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो...

कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी,
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो...

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का,
वो निभाने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो...

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी,
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो.

हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम,
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो...

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेश्तर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर,
मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो...

कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू,
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो के न याद हो...

वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का,
वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो...

जिसे आप गिनते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बावफ़ा,
मैं वही हूँ "मोमिन"-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो...

- मोमिन खान मोमिन

No comments:

Post a Comment