Saturday, June 1, 2013

तबियत इन दिनो बैगाना-ए-ग़म होती जाती है, मेरे हिस्से की गोया हर खुशीं कम होती जाती है. - जिगर मुरादाबादी

तबियत इन दिनो बैगाना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर खुशीं कम होती जाती है.

क़यामत क्या ! ये ए हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है,
के महफ़िल तो वहीं है, दिलकशीं कम होती जाती है.

वही मैं-ख़ाना-ओ-सह़बा, वहीं सागर, वहीं शीशा,
मगर आवाज़-ए-नुशाअनोश मध्धम होती जाती है.

वहीं है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है,
वहीं है शम्मा लेकिन रौशनी कम होती जाती.

वहीं है ज़िंदगी लेकिन "जिगर" ये हाल है अपना,
के जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है.

- जिगर मुरादाबादी

गोया = जैसे, अर्थात
सहबा = बादल
शाहिद = साक्क्षी, जान ने वाला

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