Sunday, December 18, 2022

जितने अपने थे, सब पराए थे - राहत इंदौरी

जितने अपने थे, सब पराए थे
हम हवा को गले लगाए थे

जितनी क़समें थीं, सब थीं शर्मिंदा,
जितने वादे थे सर झुकाए थे

जितने आंसू थे सब थे बेगाने
जितने मेहमां थे बिन बुलाए थे

सब क़िताबें पढ़ी-पढ़ाई थीं,
सारे क़िस्से सुने-सुनाए थे

एक बंजर ज़मीं के सीने में
मैंने कुछ आसमां उगाए थे

वरना औक़ात क्या थी सायों की
धूप ने हौसले बढ़ाए थे

सिर्फ़ दो घूंट प्यास कि ख़ातिर
उम्र भर धूप में नहाए थे

हाशिए पर खड़े हूए हैं हम
हमने खुद हाशिए बनाए थे

मैं अकेला उदास बैठा था
शाम ने कहकहे लगाए थे

है ग़लत उसको बेवफ़ा कहना
हम कहाँ के धुले-धुलाए थे

आज कांटो भरा मुक़द्दर है,
हम ने गुल भी बहुत खिलाए थे

- राहत इंदौरी

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