उम्र जलवों में बसर हो ये जरूरी तो नहीं,
हर स़बे ग़म की शहर हो ये जरूरी तो नहीं.
चश्मे साकी से पियो या लबे सागर से पियो,
बैखुदी आंठो पहर हो ये जरूरी तो नहीं.
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती हैं,
उनकी आगोश में सर हो ये जरूरी तो नहीं.
शेख करता तो है मस्जिद में खुदा को सज़दे,
उसके सज़दो में असर हो ये जरूरी तो नहीं.
सब की नज़रो में हो साकी ये जरूरी है मगर,
सब पे साकी की नज़र हो ये जरूरी तो नहीं.
- खामोश देहल्वि
हर स़बे ग़म की शहर हो ये जरूरी तो नहीं.
चश्मे साकी से पियो या लबे सागर से पियो,
बैखुदी आंठो पहर हो ये जरूरी तो नहीं.
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती हैं,
उनकी आगोश में सर हो ये जरूरी तो नहीं.
शेख करता तो है मस्जिद में खुदा को सज़दे,
उसके सज़दो में असर हो ये जरूरी तो नहीं.
सब की नज़रो में हो साकी ये जरूरी है मगर,
सब पे साकी की नज़र हो ये जरूरी तो नहीं.
- खामोश देहल्वि
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